Thursday, September 13, 2018

मनुष्यता 

मैथिलीशरण गुप्त

विचार लो कि मर्त्य हो न मृत्यु से डरो कभी¸
मरो परन्तु यों मरो कि याद जो करे सभी।
हुई न यों सु–मृत्यु तो वृथा मरे¸ वृथा जिये¸
नहीं वहीं कि जो जिया न आपके लिए।
यही पशु–प्रवृत्ति है कि आप आप ही चरे¸
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।

उसी उदार की कथा सरस्वती बखानवी¸
उसी उदार से धरा कृतार्थ भाव मानती।
उसी उदार की सदा सजीव कीर्ति कूजती;
तथा उसी उदार को समस्त सृष्टि पूजती।
अखण्ड आत्मभाव जो असीम विश्व में भरे¸
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिये मरे।।

सहानुभूति चाहिए¸ महाविभूति है वही;
वशीकृता सदैव है बनी हुई स्वयं मही।
विरूद्धवाद बुद्ध का दया–प्रवाह में बहा¸
विनीत लोक वर्ग क्या न सामने झुका रहे?
अहा! वही उदार है परोपकार जो करे¸
वहीं मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।

अनंत अंतरिक्ष में अनंत देव हैं खड़े¸
समक्ष ही स्वबाहु जो बढ़ा रहे बड़े–बड़े।
परस्परावलम्ब से उठो तथा बढ़ो सभी¸
अभी अमत्र्य–अंक में अपंक हो चढ़ो सभी।
रहो न यों कि एक से न काम और का सरे¸
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।

"मनुष्य मात्र बन्धु है" यही बड़ा विवेक है¸
पुराणपुरूष स्वयंभू पिता प्रसिद्ध एक है।
फलानुसार कर्म के अवश्य बाह्य भेद है¸
परंतु अंतरैक्य में प्रमाणभूत वेद हैं।
अनर्थ है कि बंधु हो न बंधु की व्यथा हरे¸
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।

चलो अभीष्ट मार्ग में सहर्ष खेलते हुए¸
विपत्ति विप्र जो पड़ें उन्हें ढकेलते हुए।
घटे न हेल मेल हाँ¸ बढ़े न भिन्नता कभी¸
अतर्क एक पंथ के सतर्क पंथ हों सभी।
तभी समर्थ भाव है कि तारता हुआ तरे¸
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।

रहो न भूल के कभी मदांध तुच्छ वित्त में
सन्त जन आपको करो न गर्व चित्त में
अन्त को हैं यहाँ त्रिलोकनाथ साथ में
दयालु दीन बन्धु के बडे विशाल हाथ हैं
अतीव भाग्यहीन हैं अंधेर भाव जो भरे
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।

जो बीत गई सो बात गई 

हरिवंश राय बच्चन 

जीवन में एक सितारा था
माना वह बेहद प्यारा था
वह डूब गया तो डूब गया
अंबर के आंगन को देखो
कितने इसके तारे टूटे
कितने इसके प्यारे छूटे
जो छूट गए फ़िर कहाँ मिले
पर बोलो टूटे तारों पर
कब अंबर शोक मनाता है
जो बीत गई सो बात गई
जीवन में वह था एक कुसुम
थे उस पर नित्य निछावर तुम
वह सूख गया तो सूख गया
मधुबन की छाती को देखो
सूखी कितनी इसकी कलियाँ
मुरझाईं कितनी वल्लरियाँ
जो मुरझाईं फ़िर कहाँ खिलीं
पर बोलो सूखे फूलों पर
कब मधुबन शोर मचाता है
जो बीत गई सो बात गई
जीवन में मधु का प्याला था
तुमने तन मन दे डाला था
वह टूट गया तो टूट गया
मदिरालय का आंगन देखो
कितने प्याले हिल जाते हैं
गिर मिट्टी में मिल जाते हैं
जो गिरते हैं कब उठते हैं
पर बोलो टूटे प्यालों पर
कब मदिरालय पछताता है
जो बीत गई सो बात गई
मृदु मिट्टी के बने हुए हैं
मधु घट फूटा ही करते हैं
लघु जीवन ले कर आए हैं
प्याले टूटा ही करते हैं
फ़िर भी मदिरालय के अन्दर
मधु के घट हैं,मधु प्याले हैं
जो मादकता के मारे हैं
वे मधु लूटा ही करते हैं
वह कच्चा पीने वाला है
जिसकी ममता घट प्यालों पर
जो सच्चे मधु से जला हुआ
कब रोता है चिल्लाता है
जो बीत गई सो बात गई

पथ भूल न जाना


∼ शिवमंगल सिंह ‘सुमन’









पथ भूल न जाना पथिक कहीं
पथ में कांटे तो होंगे ही
दुर्वादल सरिता सर होंगे
सुंदर गिरि वन वापी होंगे
सुंदरता की मृगतृष्णा में
पथ भूल न जाना पथिक कहीं।
जब कठिन कर्म पगडंडी पर
राही का मन उन्मुख होगा
जब सपने सब मिट जाएंगे
कर्तव्य मार्ग सन्मुख होगा
तब अपनी प्रथम विफलता में
पथ भूल न जाना पथिक कहीं।
अपने भी विमुख पराए बन
आंखों के आगे आएंगे
पग पग पर घोर निराशा के
काले बादल छा जाएंगे
तब अपने एकाकीपन में
पथ भूल न जाना पथिक कहीं।
रण भेरी सुन कर विदा विदा
जब सैनिक पुलक रहे होंगे
हाथों में कुमकुम थाल लिये
कुछ जलकण ढुलक रहे होंगे
कर्तव्य प्रेम की उलझन में
पथ भूल न जाना पथिक कहीं।
कुछ मस्तक काम पड़े होंगे
जब महाकाल की माला में
मां मांग रही होगी अहूति
जब स्वतंत्रता की ज्वाला में
पल भर भी पड़ असमंजस में
पथ भूल न जाना पथिक कहीं।




एक तुम हो




कवि: माखनलाल चतुर्वेदी







गगन पर सितारे- एक तुम हो,
धरा पर दो चरण हैं- एक तुम हो,
‘त्रिवेणी’ दो नदी हैं- एक तुम हो,
हिमालय दो शिखर है- एक तुम हो,

रहे साक्षी लहरता सिंधु मेरा,
कि भारत हो धरा का बिंदु मेरा ।

कला के जोड़-सी जग गुत्थियाँ ये,
हृदय के होड़-सी दृढ वृत्तियाँ ये,
तिरंगे की तरंगों पर चढ़ाते,
कि शत-शत ज्वार तेरे पास आते ।

तुझे सौगंध है घनश्याम की आ,
तुझे सौगंध है भारत-धाम की आ,
तुझे सौगंध सेवा-ग्राम की आ,
कि आ, आकर उजड़तों को बचा, आ ।

तुम्हारी यातनाएँ और अणिमा,
तुम्हारी कल्पनाएँ और लघिमा,
तुम्हारी गगन-भेदी गूँज, गरिमा,
तुम्हारे बोल ! भू की दिव्य महिमा

तुम्हारी जीभ के पैंरो महावर,
तुम्हारी अस्ति पर दो युग निछावर ।
रहे मन-भेद तेरा और मेरा,
अमर हो देश का कल का सबेरा,
कि वह कश्मीर, वह नेपाल; गोवा;
कि साक्षी वह जवाहर, यह विनोबा

प्रलय की आह युग है, चाह तुम हो,
जरा-से किंतु लापरवाह तुम हो ।

Wednesday, April 4, 2018

ग्रीष्म ऋतू 

(श्रीधर पाठक)


जेठ के दारुण आतप से , तप के जगती तल जावै जला ,
नभ मंडल छाया मरुस्थल सा ,दल बाँध के अंधड़ आवै चला ,
जलहीन जलाशय , व्याकुल हैं पशु – पक्षी , प्रचंड है भानु कला ,
किसी कानन कुञ्ज के धाम में प्यारे ,करै बिसीराम चलौ तो भला |
बरसै बदरिया सावन की 

(मीराबाई)

बरसै बदरिया सावन की,
सावन की मनभावन की ।
सावन में उमग्यो मेरो मनवा,
भनक सुनी हरि आवन की ॥
उमड घुमड चहुं दिस से आयो,
दामण दमके झर लावन की ।
नान्हीं नान्हीं बूंदन मेहा बरसै,
सीतल पवन सुहावन की ॥
मीरा के प्रभु गिरघर नागर,
आनन्द मंगल गावन की ॥
मैं नीर भरी दुःख की बदली 

(महादेवी वर्मा)
 

मैं नीर भरी दुःख की बदली,
स्पंदन में चिर निस्पंद बसा,
क्रंदन में आहत विश्व हँसा,
नयनो में दीपक से जलते,
पलकों में निर्झनी मचली !
मैं नीर भरी दुःख की बदली !

मेरा पग पग संगीत भरा,
श्वांसों में स्वप्न पराग झरा,
नभ के नव रंग बुनते दुकूल,
छाया में मलय बयार पली !
मैं नीर भरी दुःख की बदली !

मैं क्षितिज भृकुटी पर घिर धूमिल,
चिंता का भर बनी अविरल,
रज कण पर जल कण हो बरसी,
नव जीवन अंकुर बन निकली !
मैं नीर भरी दुःख की बदली !

पथ न मलिन करते आना
पद चिन्ह न दे जाते आना
सुधि मेरे आगम की जग में
सुख की सिहरन हो अंत खिली !
मैं नीर भरी दुःख की बदली !

विस्तृत नभ का कोई कोना
मेरा न कभी अपना होना
परिचय इतना इतिहास यही
उमटी कल थी मिट आज चली !
मैं नीर भरी दुःख की बदली !

मनुष्यता  मैथिलीशरण गुप्त विचार लो कि मर्त्य हो न मृत्यु से डरो कभी¸ मरो परन्तु यों मरो कि याद जो करे सभी। हुई न यों सु–मृत्यु तो ...